ثقافة وفن

كلّما..

 

كلّما تنفّستكِ..

خنقني غيابكِ..!

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كلّما رسمتكِ..

عانقتني لوحتي..!

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كلّما شربني الظمأ..

تشقّقت روحي..!

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كلّما هطل نبيذك

على عشبي..

بان قوس قدحك..!

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كلّما نبشوا في أرشيف جمري..

عن حطب هارب..

سال رماد  دمي….!

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كلّما أغلقوا فمه..

كشّـر عن أنياب عينيه..

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كلّما أيقنتكِ..

قطعت دابر شكّي

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كلّما شربني الظمأ..

تشققت روحي..

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كلّما شعرتُ بالبرد..

تذكرتُ  أمي..

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كلّما غفا غيمك..

استيقظت ذاكرة الجفاف..!

 

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كلّما تقاطعت كلماتي

اكتشفتُ  سرّ

دهشتكِ..

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كلّما قمع ذاكرته..

شاخ الحنين.

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كلّما خلعتُ يقينكِ..

ارتداني الشك..

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أيّها الماء..

كلّما عصرتُكَ ..

جفّت عروق يدي..

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كلّما حنّ إلى أوراقها..

أخذ

“شمّة حبر”..

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كلّما رسمتكِ..

صافح قوس قزح

لهفة الفرشاة..

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كلّما حاولت انتشال ظلي..

غرق ضوئي..

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كلّما أدماني الانتظار..

أسعفني الوقتُ..!

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كلّما تاهتْ جهاتكِ..

تلعثمتْ بوصلتي..!

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كلّما أخذتكُ..

بعين الاعتبار…

قالوا وجهة نظر….!

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كلّما أصابتني

لعنة الحطب..

تأكدت أنّ فأسكِ

مرّت من هنا..!

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كلّما أطلقوا

عليه الرصاص..

سالتْ دماء ظله..!

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كلّما داعبتُ الخطوة..

رمقني الطريق بألف مدى..!

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كلّما  أُصِبتُ  من الأمام…

قالوا: هذي نيران صديقة..!

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كلّما تذكرتْ المرآة صِباها..

احتربتْ التقاسيم على وجهي…

وخانني الكلام..!

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كلّما زادتْ

تلافيف الماء…

تحرّرتْ

أفكار النهر..!

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كلّما مَرِضَ قطاري ..

وصفوا له محطتك..!

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كلّما رسمتُ بحركِ…

خلعتْ فكرتي ثوبها وتندّتْ..

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كلّما ضاقتْ

أنفاس قشّتي..

دعاني بحرها

إلى الغرق..

 

رائد خليل